अपनी आँखों से तो दरिया भी सराब-आसा मिले जो भी नक़्द-ए-जाँ लुटाने आए हम से आ मिले अब वफ़ा की राह पर हर सम्त सन्नाटा मिले अहल-ए-दिल के कारवाँ किन मंज़िलों से जा मिले लप पे गर नग़्मा नहीं पलकों पे ही तारा मिले गुल नहीं खिलते तो कोई ज़ख़्म ही खिलता मिले रंग-ओ-बू के पैरहन में फूल हैं या ज़ख़्म हैं अब न वो कलियाँ न वो पत्ते न वो साया मिले इम्तिहाँ था मस्लहत थी या मिरी तक़दीर थी मैं गुलिस्तानों का तालिब था मुझे सहरा मिले उम्र-भर हर एक से मैं ने छुपाए दिल के दाग़ आज ये हसरत कि कोई देखने वाला मिले मैं ने जिन आँखों में देखे थे समुंदर मौजज़न उन में जो भी डूबने वाला मिले प्यासा मिले नाज़ उस का पासबाँ अंदाज़ उस का हम-ज़बाँ ख़ल्वतों में भी वो मुझ से अंजुमन-आरा मिले आज फिर छेड़ूँगा मैं महताब की किरनों के तार काश इमशब तो मिले या कोई तुझ जैसा मिले आँख सौ रंगों की तालिब होश सौ रंगों का ज़ख़्म दिल को ये ज़िद है कि तेरी आरज़ू तन्हा मिले अजनबी राहें भी 'सादिक़' अजनबी राहें न थीं जब किसी के जाने-पहचाने नुक़ूश-ए-पा मिले