अपनी हस्ती का मुझ को इदराक हुआ धोका खा कर मैं भी कुछ चालाक हुआ कोई मुझ को मरने से कब रोक सका वक़्त मिरा आया और क़िस्सा पाक हुआ क़ैद रहा मैं कुछ ऐसा अपने घर में भीड़ में भी तन्हाई का इदराक हुआ मैं तो पुरानी क़द्रों का था पर्वर्दा लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता यूँ बेबाक हुआ कोई कब पुर्सान-ए-हाल किसी का हुआ क़िस्सा-ए-दर्द को सुन कर मैं नमनाक हुआ कौन किसी का कब सुनता है ऐ 'रिज़वाँ' क़िस्सा-ए-दर्द सुना कर मैं नम-नाक हुआ