अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम मुंजमिद होती हुई और पिघलती हुई शाम डगमगाती हुई हर-गाम सँभलती हुई शाम ख़्वाब-गाहों से उधर ख़्वाब में चलती हुई शाम गूँध कर मोतिए के हार घनी ज़ुल्फ़ों में आरिज़-ओ-लब पे शफ़क़ सुर्ख़ियाँ मलती हुई शाम इक झलक पोशिश-ए-बे-ज़ब्त से उर्यानी की दे गई दिन के नशेबों से फिसलती हुई शाम एक सन्नाटा रग-ओ-पय में सदा गूँजता है बुझ गई जैसे लहू में कोई जलती हुई शाम वक़्त बपतिस्मा करे आब-ए-सितारा से उसे दस्त-ए-दुनिया की दराज़ी से निकलती हुई शाम