अपनी ख़्वाहिश के अगर पँख कुतरते बनते

अपनी ख़्वाहिश के अगर पँख कुतरते बनते
दश्त-ओ-सहरा में भी हमवार ये रस्ते बनते

उस दिल-ए-शोख़ की बस एक नज़र है काफ़ी
देर लगती नहीं एहसास के रिश्ते बनते

आइना-ख़ाने ही लोगों का भरम रखते हैं
वर्ना हर लम्हे तो चेहरे न बदलते बनते

कोई तो है जो हराने पे तुला है मुझ को
बात यूँही तो नहीं बिगड़े है बनते बनते

ता-कुजा दिल को तसल्ली पे तसल्ली देते
ता-कुजा राह-ए-तमन्ना से न चलते बनते

गरचे होती न मिरी ज़ीस्त की मुबहम ये किताब
ज़िंदगी सब तिरे औराक़ ये पढ़ते बनते

सब्र की मात जो होती तो ये होता 'आरिफ़'
दिल के अरमान सर-ए-राह कुचलते बनते


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