अपनी पहचान कोई ज़माने में रख ख़ुद को ज़ाएअ' न कर कुछ ख़ज़ाने में रख रात की बे-लिबासी पे मज़मून लिख शाम के फूल चुन के लिफ़ाफ़े में रख रौशनी की ज़रूरत पड़ेगी तुझे आग महफ़ूज़ कुछ आशियाने में रख जानता हूँ मिरा कोई मसरफ़ नहीं एक फैशन समझ के हवाले में रख सारे तीरों को इक साथ ज़ाएअ' न कर फ़र्क़ कुछ तो अँधेरे उजाले में रख