अपनी पलकों से जो टूटे हैं गुहर देखते हैं हम दुआ माँगते हैं और असर देखते हैं कोई बरसा हुआ बादल भी जो गुज़रा है तो हम डर के बारिश में टपकता हुआ घर देखते हैं सैर कैसी यहाँ तहज़ीब की ज़ंजीर भी है हम तो बस रौज़न-ए-दीवार से दर देखते हैं सिर्फ़ ख़्वाबों का जहाँ हम ने सजाया वर्ना लोग तो जी में जो आ जाए वो कर देखते हैं दाग़-ए-दिल दीदा-ए-तर वहशत-ए-जाँ तन्हाई उन को क्या वो तो फ़क़त अर्ज़-ए-हुनर देखते हैं एक वो मंज़िलें बढ़ कर जिन्हें लेने आएँ एक हम राह में जो गर्द-ए-सफ़र देखते हैं दिल बुझा जाता हो जब रात की तारीकी में देखने वाले तब आसार-ए-सहर देखते हैं