अर्बाब-ए-इक़्तिदार से मेरा सवाल है ये दौर-ए-इर्तिक़ा है कि दौर-ए-ज़वाल है जब जब लगे है आग हमारे ही घर जलें ये बात इत्तिफ़ाक़ है या गहरी चाल कैसी मुनाफ़िक़ों की है साज़िश न पूछिए टूटे न जो वो रेशमी धागों का जाल है ऐसे में ख़्वाब आँखों में कोई सजाए क्या वो हब्स है कि चैन से सोना मुहाल है हम तो अज़ाब-ए-तिश्ना-लबी से हैं नीम-जाँ गुज़री है जाने क्या कि समुंदर निढाल है हालात-ओ-कैफ़ियात की तस्वीर खींचना 'नुसरत' नहीं तिरा ये सुख़न का कमाल है