आरज़ू तुझ से तिरा बोसा भी कब माँगे है हर्फ़-ए-इक़रार बस इक जुम्बिश-ए-लब माँगे है उस की चाहत में अजब दिल की तलब का आलम दर्द जितना भी ज़माने में है सब माँगे है हो सलीक़ा जो ज़रा सारी तमन्ना बर आए हुस्न फिर हुस्न है और हुस्न-ए-तलब माँगे है बे-तलब जान तलक सौंप दी जिस को वो अब ख़ुद से चाहत का मिरी क्या है सबब माँगे है कब तलक ख़ून रुलाते हुए मंज़र देखे नींद को आँख ज़रा देर को अब माँगे है हर्फ़-ए-इज़हार तड़पता है तड़पने दीजे ये मोहब्बत है मियाँ पास-ए-अदब माँगे है तो मिरी जाँ है न रह दूर कि अब ज़ेहन मिरा क्यूँ है ज़िंदा ये बदन मुझ से सबब माँगे है