आरज़ूओं के धड़कते शहर जल कर रह गए कैसे कैसे हश्र ख़ामोशी में ढल कर रह गए ख़ातिर-ए-ख़स्ता का अब कोई नहीं पुर्सान-ए-हाल कितने दिलदारी के उन्वान थे बदल कर रह गए अब कहाँ अहद-ए-वफ़ा की पासदारी अब कहाँ जो हक़ाएक़ थे वो अफ़्सानों में ढल कर रह गए अब कहाँ वो साहिलों से सैर-ए-तूफ़ान-ए-हयात अब तो वो साहिल तलातुम में बदल कर रह गए हासिल-ए-ग़म या ग़म-ए-हासिल मयस्सर कुछ नहीं ज़िंदगानी के सभी अस्बाब जल कर रह गए हाए वो ग़म जो बयाँ की हद में आ सकते न थे क़ैद-ए-अश्क-ओ-आह से आगे निकल कर रह गए अल-अमाँ हालात की महशर-ख़िरामी अल-अमाँ डगमगाए इस क़दर गोया सँभल कर रह गए रह गया हूँ एक मैं तन्हा हुजूम-ए-बर्क़ में हम-नवा सारे चमन के साथ जल कर रह गए बन तो सकते थे वो तूफ़ान-ए-क़यामत-ख़ेज़ भी जो धड़कते वलवले अश्कों में ढल कर रह गए एक वो हैं डालते हैं माह-ओ-अंजुम पर कमंद और इक हम हैं कि ख़्वाबों से बहल कर रह गए जिन को हासिल था ज़माने में सुकून-ए-इज़्तिराब अपने ही एहसास के शो'लों में जल कर रह गए जिन की ख़ामोशी थी मशहूर-ए-ज़माना ऐ 'सलाम' आज उन के मुँह से भी शिकवे निकल कर रह गए