आरज़ूओं का नगर छोड़ आए नाज़ था जिस पे वो घर छोड़ आए इक तिरी याद बचा कर रख ली सारा सामान-ए-सफ़र छोड़ आए मुद्दतों याद रखेगी दुनिया हम भी इक ऐसा हुनर छोड़ आए घर के बाहर भी उदासी न गई घर से घबरा के जो घर छोड़ आए थक गए जब कोई खिड़की न खुली हम वहीं दीदा-ए-तर छोड़ आए उस को आते ही बनेगी 'रहमत' आज इक ऐसी ख़बर छोड़ आए