अश्क आँखों में डर से ला न सके दिल की भड़की हुई बुझा न सके न हिली जब ज़बाँ नज़ाकत से रह गए देख कर बुला न सके थीं जो उस में हया की कुछ बातें शिकवा मेरा वो लब पे ला न सके क्या हुए तेरे हौसले ऐ अश्क हर्फ़-ए-तक़दीर को मिटा न सके था ये ख़तरा कहीं पसंद न हों गालियाँ भी मुझे सुना न सके गो बहुत पास-ए-ग़ैर था लेकिन आँख हम से भी वो चुरा न सके पाँव चूमा किए हिना की तरह जब कोई और रंग ला न सके ख़ामुशी थी ब-शक्ल-ए-ज़ख़्म मुझे लब तक अपने सवाल आ न सके न मली उस ने पाँव में मेहंदी रंग अपना अदू जमा न सके इज़्तिराब-ए-क़ज़ा हुआ ये 'नसीम' कि गले भी उसे लगा न सके