अश्क को दरिया बनाया आँख को साहिल किया मैं ने मुश्किल वक़्त को कुछ और भी मुश्किल किया एक मायूसी ही दिल में कब तलक रहती मिरे मैं ने मायूसी में दिल का ख़ौफ़ भी शामिल किया नींद की इमदाद जैसे ही बहम पहुँची मुझे आँख के मक़्तल में अपने ख़्वाब को दाख़िल किया वर्ना तेरा छोड़ जाना जान ले जाता मिरी कर्ब में आँसू मिला कर दर्द को ज़ाइल किया जैसे दुनिया देखती है वैसे कब तक देखते दीदा-ए-बीना से देखें ख़ुद को इस क़ाबिल किया एक चेहरा और दो आँखें ले गए बाज़ार में गिरवी रख के उन को फिर इक आइना हासिल किया वर्ना वो कब बात सुनता था किसी की बज़्म में मैं ने अपने शेर से उस शख़्स को क़ाइल किया बे-नियाज़ी से गुज़ारे उम्र के बत्तीस साल खो दिया कब जाने तुझ को कब तुझे हासिल किया रात-दिन उल्टा लटक कर ज़ात के कूएँ में 'ज़ेब' सोच की ना-पुख़्तगी को मश्क़ से कामिल किया