अश्क मिरी आँख के क़रीन कहीं था ग़म जो मिरे दिल में जागुज़ीन कहीं था छोड़ गया तो मुझे जी कैसे बहलता तुझ सा ज़माने में क्या हसीन कहीं था राह-गुज़ारों से ये मकान कहे है राह में देखा मिरा मकीन कहीं था मैं कि न मरता था मुझ को मार गया फिर यार सा इक मार-ए-आस्तीन कहीं था हार मुक़द्दर 'नियाज़' होनी थी वो है दीन कहीं था तिरा यक़ीन कहीं था