अश्कों में क़लम डुबो रहा है फ़नकार जवान हो रहा है मक़्तल के दिखा रहा है मंज़र काग़ज़ को लहू से धो रहा है ज़ालिम को सिखा रहा है इंसाफ़ पत्थर में दरख़्त बो रहा है पर्बत से लड़ा रहा है आँखें मिट्टी से तुलूअ' हो रहा है हारी हुई रात का सवेरा ग़ुंचों की जबीं भिगो रहा है ज़र्रे को बना के एक क़ुव्वत ख़ुद अपना मक़ाम खो रहा है लोहे को अजल की धार दे कर ख़ुद इस का शिकार हो रहा है महलों में नहीं किसी को आराम फ़ुटपाथ पे कोई सो रहा है छूता नहीं डर से फूल कोई काँटों को कोई पिरो रहा है ख़ंदाँ हैं गली गली सितारे घर घर का चराग़ रो रहा है सीने में कोई ख़याल 'ज़ुल्फ़ी' सूइयाँ सी चुभो चुभो रहा है