असीरान-ए-हवादिस की गिराँ-जानी नहीं जाती जहाँ से ख़ून-ए-इंसानी की अर्ज़ानी नहीं जाती दरोग़-ए-मस्लहत के देख कर आसार चेहरों पर हक़ीक़त-आश्ना आँखों की हैरानी नहीं जाती निशान-ए-ख़ुसरवी तो मिट गए हैं लौह-ए-आलम से कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती अंधेरा इस क़दर है शहर पर छाया सियासत का किसी भी शख़्स की अब शक्ल पहचानी नहीं जाती ज़माना कर्बला का नाम सुन कर काँप उठता है अभी तक ख़ून-ए-शब्बीरी की जौलानी नहीं जाती फ़ुज़ूँ-तर और होते जा रहे हैं चाक दामन के रफ़ू-गर से हमारी चाक-दामानी नहीं जाती ये माना रौशनी को पी गई ज़ुल्मत जिहालत की मगर इस ज़र्रा-ए-ख़ाकी की ताबानी नहीं जाती