असीर-ए-हल्क़ा-ए-गेसू-ए-ख़ूबाँ हो नहीं सकता वो दिल तू जिस को तस्कीं दे परेशाँ हो नहीं सकता तिरी क़ुदरत से होता है तिरी हिकमत से होता है कोई पत्थर कहीं ला'ल-ए-बदख़्शाँ हो नहीं सकता मोहब्बत हो कि नफ़रत हो ये दिल के खेल हैं सारे न चाहे दिल तो कोई दुश्मन-ए-जाँ हो नहीं सकता छुपा लेते हैं बा-दिल मेहर-ओ-मह को अपने दामन में चराग़-ए-दाग़-ए-उल्फ़त ज़ेर-ए-दामाँ हो नहीं सकता मुसीबत ही से क़द्र-एआफ़ियत होती है दुनिया में न पेश आया हो जिस को ग़म वो शादाँ हो नहीं सकता वतन कोई हो इज़्ज़त जौहर-ए-क़ाबिल से बढ़ती है गुल-ए-सहरा का हम-सर ख़ार-ए-बुस्ताँ हो नहीं सकता दिल-ए-इंसाँ है मुहताज-ए-ज़िया-ए-आफ़्ताब-ए-इश्क़ बग़ैर उस के किसी सूरत दरख़्शाँ हो नहीं सकता उसी से इख़्तियार-ओ-जब्र का मफ़्हूम खुलता है जो होना चाहता है कोई इंसाँ हो नहीं सकता मिटाया तू ने ऐ 'महरूम' हर-इक नक़्श-ए-बातिल को जुदा दिल से तिरे क्यूँ दाग़-ए-हिर्मां हो नहीं सकता