असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं मैं जी रहा हूँ तो देखो मरा पड़ा भी हूँ मैं मैं एक लम्हा-ए-हाज़िर बिला-सियाक़-ओ-सबाक़ और अपने लम्हा-ए-हाज़िर का हाफ़िज़ा भी हूँ मैं मैं एक फ़र्द-ए-सफ़-आरा मुआ'शरे के ख़िलाफ़ और एक फ़र्द में पूरा मुआ'शरा भी हूँ मैं निकल भी आया हूँ उस कूचा-ए-तग़ाफ़ुल से और उस के दर पे बहुत सा पड़ा हुआ भी हूँ मैं मैं अपनी ख़ाक में लत-पथ पड़ा हुआ हूँ अभी मगर न भूल कि पर्वर्दा-ए-हवा भी हूँ मैं किसी भी लफ़्ज़ के जैसा नहीं है लफ़्ज़ मिरा इधर-उधर से बहुत सा कहा-सुना भी हूँ मैं अगरचे ठीक से बंदा भी मैं नहीं 'एहसास' मगर कभी कभी इक लम्हा-ए-ख़ुदा भी हूँ मैं