असीर-ए-वादा-ए-बे-एतिबार बैठे हैं जहाँ पे छोड़ गई थी बहार बैठे हैं नसीम-ए-सुब्ह-ए-बहारी इधर न आ कि इधर फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-फ़स्ल-ए-बहार बैठे हैं बगूले रक़्स में फिर आ गए हैं और हम लोग अभी तो झाड़ के गर्द-ओ-ग़ुबार बैठे हैं है लब पे आह फ़लक पर निगाह तंग ज़मीं वतन-नसीब ग़रीब-उद-दयार बैठे हैं कभी तो हाथ पहुँच जाएगा गरेबाँ तक कभी तो आएगी फ़स्ल-ए-बहार बैठे हैं हैं उन के हाथ शहीदों के ख़ूँ से तर 'नश्तर' वही जो सूरत-ए-परवरदिगार बैठे हैं