और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी जान कितनी है जिस्म में बाक़ी ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं मुर्दा लोगों की आदतें बाक़ी उस से मिलना वो ख़्वाब-ए-हस्ती में ख़्वाब मादूम हसरतें बाक़ी बह गए रंग-ओ-नूर के चश्मे रह गईं उन की रंगतें बाक़ी जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल शहर में हैं वो सूरतें बाक़ी वो तो आ के 'मुनीर' जा भी चुका इक महक सी है बाग़ में बाक़ी