और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा अपने चेहरे पर मिरी गर्द-ए-सफ़र ले जाएगा दस्तरस आसाँ नहीं कुछ ख़िर्मन-ए-मअ'नी तलक जो भी आएगा वो लफ़्ज़ों के गुहर ले जाएगा छाँव में नख़्ल-ए-जुनूँ की आओ ठहरा लें उसे कौन जलती धूप को सहरा से घर ले जाएगा आसमाँ की खोज में हम से ज़मीं भी खो गई कितनी पस्ती में मज़ाक़-ए-बाल-ओ-पर ले जाएगा मैं ही तन्हा हूँ यहाँ उस की सलाबत का गवाह कौन उठा कर ये मिरा संग-ए-हुनर ले जाएगा काट कर दस्त-ए-दुआ को मेरे ख़ुश हो ले मगर तू कहाँ आख़िर ये शाख़-ए-बे-समर ले जाएगा पस्त रक्खो अपनी आवाज़ों को वर्ना दूर तक बात घर की रख़्ना-ए-दीवार-ओ-दर ले जाएगा मैं उठाता हूँ क़दम हालात की रौ के ख़िलाफ़ जानता हूँ वक़्त का झोंका किधर ले जाएगा इतनी लम्बी भी नहीं लोगो ये गुमनामी की उम्र ढूँढ कर मुझ को शुऊर-ए-मोअतबर ले जाएगा कारोबार-ए-ज़िंदगी तक हैं ये हंगामे 'फ़ज़ा' क्या वो साया छोड़ देगा जो शजर ले जाएगा