औरों की प्यास और है और उस की प्यास और कहता है हर गिलास पे बस इक गिलास और ख़ुद को कई बरस से ये समझा रहे हैं हम काटी है इतनी उम्र तो दो-चार मास और पहले ही कम हसीन कहाँ था तुम्हारा ग़म पहना दिया है उस को ग़ज़ल का लिबास और टकरा रही है साँस मिरी उस की साँस से दिल फिर भी दे रहा है सदा और पास और अल्लाह उस का लहजा-ए-शीरीं कि क्या कहूँ वल्लाह उस पे उर्दू ज़बाँ की मिठास और बाँधा है अब नक़ाब तो फिर कस के बाँध ले इक घूँट पी के ये न हो बढ़ जाए प्यास और 'ग़ालिब' हयात होते तो करते ये ए'तिराफ़ दौर-ए-'चराग़' में है ग़ज़ल का क्लास और