अव्वल तो मैं रुकता नहीं और जिस से रुकूँ मैं ता-हश्र ये मुमकिन नहीं फिर उस से मिलूँ में ये और सुनाई कि मिरी बात तो सुन ले जो तेरी कहे आन के उस की न सुनूँ मैं ये ख़ूब कही देखेंगे कब तक न मिलेगा इस बात पे गर चाहो तो अब शर्म करूँ मैं आपस में अगर चर्ख़-ओ-ज़मीं दिनों ये मिल जाएँ तो भी न कभी तुझ से मिला हूँ न मिलूँ मैं तब नाम है 'मारूफ़' धरा रह तो सही जब छाती पे तिरी आठ-पहर मूँग दलूँ मैं