अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता आऊँ तो कहीं तेरा ठिकाना नहीं मिलता मिलना जो मिरा छोड़ दिया तू ने तो मुझ से ख़ातिर से तिरी सारा ज़माना नहीं मिलता आवे तो बहाने से चला शब मिरे घर को ऐसा कोई क्या तुझ को बहाना नहीं मिलता क्या फ़ाएदा गर हिर्स करे ज़र की तू नादाँ कुछ हिर्स से क़ारूँ का ख़ज़ाना नहीं मिलता भूले से भी उस ने न कहा यूँ मिरे हक़ में क्या हो गया जो अब वो दिवाना नहीं मिलता फिर बैठने का मुझ को मज़ा ही नहीं उठता जब तक कि तिरे शाने से शाना नहीं मिलता ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई तुझ सा कोई आलम को मैं छाना नहीं मिलता