वो हुस्न क्या जो किसी दिल का मुद्दआ' न हुआ वो इश्क़ क्या जो मोहब्बत की इंतिहा न हुआ बचेगा क्या कोई उन की नज़र के तीरों से निशाना उन की नज़र का कभी ख़ता न हुआ कोई पयाम न हम नामा-बर को दे पाए सलाम कहते ही फ़िल-फ़ौर वो रवाना हुआ हमारा ज़िक्र पहुँचते ही उन की महफ़िल में ज़माने भर की ज़बाँ पर चढ़ा फ़साना हुआ ख़ुदा के बंदे ही बंदों पे ज़ुल्म करते हैं ख़ुदा का शुक्र है बंदा अभी ख़ुदा न हुआ तिरे हुज़ूर पहुँच कर भी सब रहे महरूम किसी को हौसला-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ न हुआ बुतों की याद में 'आज़म' बसर हुई अपनी ख़ुदा की याद का फ़र्ज़ एक दिन अदा न हुआ