बात अपनों की करूँ मैं किसी बेगाने से क्यूँ बहक जाते हो तुम ग़ैर के बहकाने से राज़ की बात है पूछो किसी दीवाने से उक़्दा-ए-इश्क़ खुला कब किसी फ़रज़ाने से क्या कहे उन से कोई दिल की तमन्ना क्या है जान कर भी जो बने रहते हैं अनजाने से आन की आन में जल-बुझ के हुआ ख़ाकिस्तर क्या कहें कह दिया क्या शम्अ' ने परवाने से ऐ 'शफ़क़' उक़्दा-ए-हस्ती का सुलझना मालूम जो उलझ जाता है कुछ और भी सुलझाने से
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