बात क्या है वो तजल्ली ब-सर-ए-तूर नहीं इश्क़ मजबूर सही हुस्न तो मजबूर नहीं जिस में मर्ज़ी हो तिरी अपनी रज़ा भी है वही ख़ुद-परस्ती हो मोहब्बत का ये दस्तूर नहीं निगह-ए-चश्म-ए-करम कार-ए-रफ़ू करती है याँ दुरुस्ती दिल-ए-सद-चाक की मंज़ूर नहीं अब किसे साग़र-ए-मय आ के पिलाए साक़ी नज़्र-ए-सर देने को सरमद नहीं मंसूर नहीं पास-ए-सय्याद ने रोका है ब-मुश्किल वर्ना तन है पाबंद-ए-क़फ़स नाला तो मजबूर नहीं क़हर से तेरे ज़ियादा है इनायत तेरी बख़्श दे 'नूर' को रहमत से ये कुछ दूर नहीं