बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है तहनियत ऐ दिल कि अब दीवार दर होने को है खोल दें ज़ंजीर-ए-दर और हौज़ को ख़ाली करें ज़िंदगी के बाग़ में अब सह-पहर होने को है मौत की आहट सुनाई दे रही है दिल में क्यूँ क्या मोहब्बत से बहुत ख़ाली ये घर होने को है गर्द-ए-रह बन कर कोई हासिल सफ़र का हो गया ख़ाक में मिल कर कोई लाल-ओ-गुहर होने को है इक चमक सी तो नज़र आई है अपनी ख़ाक में मुझ पे भी शायद तवज्जोह की नज़र होने को है गुम-शुदा बस्ती मुसाफ़िर लौट कर आते नहीं मोजज़ा ऐसा मगर बार-ए-दिगर होने को है रौनक़-ए-बाज़ार-ओ-महफ़िल कम नहीं है आज भी सानेहा इस शहर में कोई मगर होने को है घर का सारा रास्ता इस सरख़ुशी में कट गया इस से अगले मोड़ कोई हम-सफ़र होने को है