बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ आँसू रुके तो आँख में महशर बपा हुआ सूखी ज़मीं पे बिखरी हुई चंद पत्तियाँ कुछ तो बता निगार-ए-चमन तुझ को क्या हुआ ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं ऐसे गए कि फिर न कभी लौटना हुआ ऐ जुस्तुजू कहाँ गए वो हौसले तिरे किस दश्त में ख़राब तिरा क़ाफ़िला हुआ पहुँचे पस-ए-ख़याल तो देखा कि रेत पर ख़ेमा था एक फूल की सूरत खिला हुआ आई शब-ए-सियह तो दिए झिलमिला उठे था रौशनी में शहर हमारा बुझा हुआ