बदलती रुत पे हवाओं के सख़्त पहरे थे लहू लहू थी नज़र दाग़ दाग़ चेहरे थे ये राज़ खुल न सका हर्फ़-ए-नारसा पे मिरे सदाएँ तेज़ बहुत थीं कि लोग बहरे थे वो पूजने की सियासत से ख़ूब वाक़िफ़ था वही चढ़ाए जो गेंदे के ज़र्द सेहरे थे जो भाई लौट के आए कभी न दरिया से उन्हीं के बाज़ू क़वी थे बदन इकहरे थे उसी सबब से मिरा अक्स टूट टूट गया उस आइने में कई और भी तो चेहरे थे समुंदरों का वो प्यासा था और ओस थी मैं वो अब्र लौट गया जिस के लब सुनहरे थे इन आँचलों पे कोई सज्दा-रेज़ हो न सका कि जिन के रंग बहुत शोख़ और गहरे थे समाअ'तों के धुँदलकों में खो गए 'शबनम' वो सारे लफ़्ज़ जो पलकों पे आ के ठहरे थे