बदन है सब्ज़ और शादाब लेकिन रूह प्यासी है मिरे अंदर हज़ारों बाँझ पेड़ों की उदासी है किसी के दिल से अब जज़्बात का रिश्ता नहीं क़ाएम हँसी भी मस्लहत-आमेज़ आँसू भी सियासी है पए-इज़हार कुछ ऐसा नहीं है जो अनोखा हो हर इक जज़्बा पुराना है हर इक एहसास बासी है हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता है पड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है सिमट कर रह गई है वुसअत-ए-दुनिया हथेली भर हमारा मसअला अब भी हमारी ख़ुद-शनासी है लगा हूँ मैं 'तलब' इस सच को झुटलाने में बरसों से मैं कल आक़ा था जिस का अब मिरे बेटे की दासी है