बदन की क़ैद से बाहर ठिकाना चाहता है अजीब दिल है कहीं और जाना चाहता है अभी दिखाओ न तस्वीर-ए-ज़िंदगी इस को ये बचपना है अभी मुस्कुराना चाहता है हर एक रुत नहीं भाती हमारी आँखों को हमारा ख़्वाब भी मौसम सुहाना चाहता है घुटन हो दिल में तो फिर शाएरी नहीं होती ग़ज़ल का शेर फ़ज़ा शाइराना चाहता है तिरे बग़ैर भी ज़िंदा हूँ देख ले ऐ दोस्त अब और क्या तू मुझे आज़माना चाहता है मैं इन अमीरों की आँखों में यूँ खटकता हूँ कि मुझ ग़रीब को सारा ज़माना चाहता है मैं जाँ निसार करूँ उस पे चाहता हूँ मगर वो आसमाँ से सितारे मंगाना चाहता है इन आँधियों को यही ख़ौफ़ खाए जाता है 'फ़राज़' फिर से दिया इक जलाना चाहता है