बदन से रूह रुख़्सत हो रही है मुकम्मल क़ैद ग़ुर्बत हो रही है मैं ख़ुद तर्क-ए-तअल्लुक़ पर हूँ मजबूर कुछ ऐसी ही तबीअत हो रही है जफ़ा उन की दिल-ए-ज़ूद-आश्ना पर ब-मिक़दार-ए-मोहब्बत हो रही है ख़ुदा से मिल गया है हुस्न-ए-काफ़िर ख़ुदाई पर हुकूमत हो रही है नहीं तंहाई-ए-ज़िंदाँ मुकम्मल मुझे साये से वहशत हो रही है ये तुम हँस हँस के बातें कर रहे हो कि तक़्सीम-ए-जराहत हो रही है अगर मशरब नहीं बदला है 'सीमाब' तो क्यूँ तज्दीद-ए-बैअत हो रही है