बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला जब इंक़लाब के लहजे में बे-ज़बाँ बोला तकोगे यूँही हवाओं का मुँह भला कब तक ये ना-ख़ुदाओं से इक रोज़ बादबाँ बोला चमन में सब की ज़बाँ पर थी मेरी मज़लूमी मिरे ख़िलाफ़ जो बोला तो बाग़बाँ बोला यही बहुत है कि ज़िंदा तो हो मियाँ-साहब ज़माना सुन के मिरे ग़म की दास्ताँ बोला हिसार-ए-जब्र में ज़िंदा बदन जलाए गए किसी ने दम नहीं मारा मगर धुआँ बोला असर हुआ तो ये तक़रीर का कमाल नहीं मिरा ख़ुलूस मुख़ातब था मैं कहाँ बोला कहा न था कि नवाज़ेंगे हम 'हफ़ीज़' तुझे उड़ा के वो मिरे दामन की धज्जियाँ बोला