बड़े ग़ज़ब का है यारो बड़े अज़ाब का ज़ख़्म अगर शबाब ही ठहरा मिरे शबाब का ज़ख़्म ज़रा सी बात थी कुछ आसमाँ न फट पड़ता मगर हरा है अभी तक तिरे जवाब का ज़ख़्म ज़मीं की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अंधेरों से है आसमाँ के भी सीने पे आफ़्ताब का ज़ख़्म मैं संगसार जो होता तो फिर भी ख़ुश रहता खटक रहा है मगर दिल में इक गुलाब का ज़ख़्म उसी की चारागरी में गुज़र गई 'असरार' तमाम उम्र को काफ़ी था इक शबाब का ज़ख़्म