बढ़े चलो कि थकन तो नशे की महफ़िल है अभी तो दूर बहुत दूर अपनी मंज़िल है ये बे-क़रार तबस्सुम तिरे लबों का फ़ुसूँ यही तो चाक-ए-गरेबाँ की पहली मंज़िल है किसी का राज़ तो फिर भी पराई बात हुई ख़ुद अपने दिल को समझना भी सख़्त मुश्किल है किसी ने चाँद पे लहरा दिया है परचम-ए-वक़्त कोई हमारी तरह सहल जिस को मुश्किल है इक आबशार पे मानिंद-ए-बर्ग-ए-आवारा कोई मक़ाम है अपना न कोई मंज़िल है