बाँधते शायरी में हो तिल को क्या कोई रास आ गया दिल को जानती हैं कि अब विदाई है कश्तियाँ चूमती हैं साहिल को काम सब हो गए मिरे आसाँ कौन समझेगा मेरी मुश्किल को पाँव में आँख तो नहीं फिर भी देखते हैं क़दम ये मंज़िल को शाम है मैं हूँ बंद कमरा है ढूँढते हैं चराग़ महफ़िल को ग़म से इक उम्र के मरासिम हैं तोड़ दूँ कैसे मैं सलासिल को देख कर रो पड़ा मिरी हालत कौन सा ग़म है मेरे क़ातिल को
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