बदला मिज़ाज-ए-हुस्न तो वो रू-ब-रू नहीं वो इश्वा-ओ-अदा नहीं वो गुफ़्तुगू नहीं दिल से तुझे निकाल के कुछ मुतमइन तो हूँ फिर भी कहूँ ये कैसे तिरी जुस्तुजू नहीं ख़ुशबू न जिन की फैले फ़ज़ाओं में चार-सू गुलशन में ऐसे फूलों की कुछ आबरू नहीं जब से निज़ाम-ए-मय-कदा बदला है दोस्तो वो मय नहीं वो जाम नहीं वो सुबू नहीं चर्चे वो दोस्तों ने दिए हैं कि अल-अमाँ अब राह-ओ-रस्म की भी मुझे आरज़ू नहीं 'क़ैसर' हर इक तरफ़ है गिरानी का तज़्किरा लेकिन ज़रा बताइए सस्ता लहू नहीं