बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने आग़ाज़ किया अपने ही इंकार से हम ने दरवाज़ा नहीं अपने सरोकार में शामिल है राब्ता रक्खा हुआ दीवार से हम ने इम्कान सा खोला हुआ साहिल की हवा पर उम्मीद सी बाँधी हुई उस पार से हम ने अपनी ही बिगाड़ी हुई सूरत के अलावा कुछ और निकाला नहीं तूमार से हम ने इस का भी कोई फ़ाएदा पहुँचा न किसी को आसाँ जो बरामद किया दुश्वार से हम ने मंज़िल जो हमारी थी कहीं रह गई पीछे ये काम लिया तुंदी-ए-रफ़्तार से हम ने ये धूप ही थी अपनी गुज़रगाह सो रक्खा इक फ़ासला भी साया-ए-अश्जार से हम ने जाँचा है किसी और तरीक़े से ये सब कुछ परखा है किसी अपने ही मेआर से हम ने उस की भी अदा की है 'ज़फ़र' आज तो क़ीमत जो चीज़ ख़रीदी नहीं बाज़ार से हम ने