बदले में जफ़ाओं के वफ़ा क्यूँ नहीं देते तुम इश्क़ के शो'लों को हवा क्यूँ नहीं देते मा'दूम अगर हो तो कहाँ ढूँढने जाएँ मौजूद अगर हो तो पता क्यूँ नहीं देते हैरत है कि इस दौर-ए-कुदूरत के सलातीं हम अहल-ए-मोहब्बत को सज़ा क्यूँ नहीं देते मिलती है गुनाहों की सज़ा हश्र में लेकिन ना-कर्दा गुनाहों की जज़ा क्यूँ नहीं देते कब तक ऐ 'सहर' ज़ब्त का आज़ार सहोगे जो बात है वो उस को बता क्यूँ नहीं देते