बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह फूल की तरह हँसे रो दिए शबनम की तरह शिकवा करते हो ख़ुशी तुम से मनाई न गई हम से ग़म भी तो मनाया न गया ग़म की तरह रोज़ महफ़िल से उठाते हो तो दिल दुखता है अब निकलवाओ तो फिर हज़रत-ए-आदम की तरह लाख हम रिंद सही हज़रत-ए-वाइ'ज़ लेकिन आज तक हम ने न पी क़िब्ला-ए-आलम की तरह तेरे अंदाज़-ए-जराहत के निसार ऐ क़ातिल ख़ून ज़ख़्मों पे नज़र आता है मरहम की तरह ख़ौफ़ दिल से न गया सुब्ह के होने का 'क़मर' वस्ल की रात गुज़ारी है शब-ए-ग़म की तरह