बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं दरिया-ए-मअरिफ़त के देखा तो हम हैं साहिल गर वार हैं तो हम हैं और पार हैं तो हम हैं वाबस्ता है हमीं से गर जब्र है ओ गर क़द्र मजबूर हैं तो हम हैं मुख़्तार हैं तो हम हैं तेरा ही हुस्न जग में हर-चंद मौजज़न है तिस पर भी तिश्ना-काम-ए-दीदार हैं तो हम हैं अल्फ़ाज़-ए-ख़ल्क़ हम बिन सब मोहमलात से थे मा'नी की तरह रब्त-ए-गुफ़्तार हैं तो हम हैं औरों से तो गिरानी यक-लख़्त उठ गई है ऐ 'दर्द' अपने दिल के गर बार हैं तो हम हैं