बाग़-ए-जहाँ के सादा जमालों से इश्क़ है सब्ज़े से गुल से सर्व से लालों से इश्क़ है हाँ ख़ार-ओ-ख़स से दिल को इलाक़ा है पास का हाँ इस चमन के ताज़ा निहालों से इश्क़ है सादा सी गुफ़्तुगू के ख़म-ओ-पेच हैं अज़ीज़ ख़ामोशियों के गर्म मक़ालों से इश्क़ है जो बा-हुनर हैं उन के क़दम चूमते हैं हम जो बे-हुनर हैं उन के कमालों से इश्क़ है बूढ़ों के पारा पारा अज़ाएम का है मलाल बच्चों के ताज़ा ताज़ा सवालों से इश्क़ है हर बे-नवा फ़क़ीर को देते हैं ख़ून-ए-दिल हर ख़ुश-नवा फ़क़ीर के नालों से इश्क़ है सारे-जहाँ के तल्ख़-नवाओं से है नियाज़ सारे-जहाँ की शीरीं-मक़ालों से इश्क़ है या कुफ़्र-ओ-दीं के जानने वालों से क्या ग़रज़ याँ कुफ़्र-ओ-दीं के मानने वालों से इश्क़ है