बग़ैर शब्दों की एक रचना सुना रही हैं तुम्हारी आँखें तुम्हारे सीने में क्या तड़प है बता रही हैं तुम्हारी आँखें नहीं है ये कोई गीत मेरा ये कोई मेरी ग़ज़ल नहीं है वही मैं काग़ज़ पे लिख रहा हूँ जो गा रही हैं तुम्हारी आँखें मिरी मोहब्बत के आइने से तुम अपनी आँखें चुरा रही हो मगर मिरे दिल को चुपके चुपके चुरा रही हैं तुम्हारी आँखें पड़ी है जब से तुम्हारी छाया नदी का पानी चमक उठा है कि बहते दरिया में दीप जैसे जला रही हैं तुम्हारी आँखें तुम्हारी आँखों के सुर्ख़ डोरे कहानियाँ सी सुना रहे हैं तुम्हारी नींदें उड़ी उड़ी हैं बता रही हैं तुम्हारी आँखें मैं दिल के काग़ज़ पे जिस ग़ज़ल को लिखे हुए हूँ न जाने कब से मुझे लगा है वही ग़ज़ल गुनगुना रही हैं तुम्हारी आँखें