बहादुरी जो नहीं है तो बुज़दिली भी नहीं बहुत ही चाहा मगर हम से ख़ुद-कुशी न हुई कुछ इस तरह से ख़यालों ने रौशनी बख़्शी तुम्हारी ज़ुल्फ़ भी बिखरी तो तीरगी न हुई किसी के दर्द को तुम जानते भला क्यूँकर ख़ुद अपने दर्द से जब तुम को आगही न हुई वो तीरगी थी मुसल्लत फ़ज़ा-ए-आलम पर लहू के दीप जले फिर भी रौशनी न हुई मैं जी रहा हूँ दिल-ए-मुर्दा ले के सीने में इसे तो मौत कहो ये तो ज़िंदगी न हुई
This is a great बहादुरी की शायरी.