बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते जो हम भी छूट जाते अब तो क्या दीवाना-पन करते तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता जो टुक दम मार सकते हम तो कुछ फ़िक्र-ए-सुख़न करते नहीं जूँ पंजा-ए-गुल कुछ भी इन हाथों में गीराई वगरना ये गरेबाँ नज़्र-ए-ख़ूबान-ए-चमन करते मुसाफ़िर हो के आए हैं जहाँ में तिस पे वहशत है क़यामत थी अगर हम इस ख़राबा में वतन करते कोई फ़रहाद जैसे बे-ज़बाँ को क़त्ल करता है 'यक़ीं' हम वाँ अगर होते तो इक-दो बचन करते