बाहर के असरार लहू के अंदर खुलते हैं बंद आँखों पर कैसे कैसे मंज़र खुलते हैं अपने अश्कों से अपना दिल शक़ हो जाता है बारिश की बौछार से क्या क्या पत्थर खुलते हैं लफ़्ज़ों की तक़दीर बंधी है मेरे क़लम के साथ हाथ में आते ही शमशीर के जौहर खुलते हैं शाम खुले तो नश्शे की हद जारी होती है तिश्ना-कामों की हुज्जत पर साग़र खुलते हैं 'साक़ी' पागल कर देते हैं वस्ल के ख़्वाब मुझे उस को देखते ही आँखों में बिस्तर खुलते हैं