बहर में सोचती थी मैं तुम को शे'र में ढालती थी मैं तुम को सारे जग में तलाशना तो अलग तुम में भी खोजती थी मैं तुम को मुख़्तलिफ़ तुम नहीं थे दुनिया से मुख़्तलिफ़ सोचती थी मैं तुम को खो के मुझ को ये सोचते हो ना किस क़दर चाहती थी मैं तुम को मुझ को हर ग़म नवाज़ने वाले हर ख़ुशी सौंपती थी मैं तुम को तुम आचानक बदल गए तो खुला कितना कम जानती थी मैं तुम को साँप पर पाँव आ गया मेरा ख़्वाब में देखती थी मैं तुम को आख़िरश तुम ने मार डाला मुझे ज़िंदगी मानती थी मैं तुम को