बहे साथ अश्क के लख़्त-ए-जिगर तक न की उस ने मिरी जानिब नज़र तक अबस सय्याद को है बद-गुमानी नहीं बाज़ू में अपने एक पर तक ख़बर आई मरीज़-ए-दर्द-ओ-ग़म की कहीं पहुँचे ख़बर उस बे-ख़बर तक नज़ाकत से लगी बल करने क्या क्या अभी गेसू न पहुँचे थे कमर तक जिए जाते हैं शक्ल-ए-शम्-ए-सोज़ाँ न कुछ बाक़ी रहेंगे हम सहर तक अगर मैं याद होता तो न आते मगर भूले से आए मेरे घर तक दम-ए-गिर्या थी ग़ालिब ना-तवानी पहुँचते लख़्त-ए-दिल क्या चश्म-ए-तर तक ख़ुदा जाने 'असर' को क्या हुआ है रहा करता है चुप दो दो पहर तक