बहुत बार-ए-गराँ ये ज़िंदगी मालूम होती है कि ग़म का पेश-ख़ेमा हर ख़ुशी मालूम होती है किसी से सरगुज़िश्त-ए-ग़म बयाँ करता हूँ जब अपनी कहानी वो सरासर आप की मालूम होती है है महरूमी सी महरूमी तो मजबूरी सी मजबूरी कि हर साअत मुसीबत में घिरी मालूम होती है चला हूँ जिस पे इक मुद्दत रहा हूँ आश्ना जिस से वो मंज़िल, रहगुज़र अब अजनबी मालूम होती है कहाँ जाऊँ मैं ऐ 'ख़ुशतर' कहूँ रूदाद भी किस से कि जिस को देखिए जाँ पर बनी मालूम होती है