बहुत जल्दी थी घर जाने की लेकिन By Ghazal << आस्तीं में साँप इक पलता र... आहें अफ़्लाक में मिल जाती... >> बहुत जल्दी थी घर जाने की लेकिन मुझे फिर शाम रस्ते में पड़ी है निसाब-ए-ज़िंदगी जिस में लिखा है किताब-ए-दिल वो बस्ते में पड़ी है नहीं अर्ज़ां मता-ए-राएगानी मगर मुझ को ये सस्ते में पड़ी है वो ऐसे ढूँडने निकले हैं 'बाक़ी' मोहब्बत जैसे रस्ते में पड़ी है Share on: